साझा सुनना

साथ-साथ सुनना हमारे सारे रियाज़ों की बुनियाद है।  हम शहर को सुनते हैं, लोगों को सुनते हैं, जगहों को सुनते हैं, और तो और एक-दूसरे को भी उतने ही ग़ौर से सुनते हैं। दिल्ली लिसनिंग ग्रुप की महफ़िलों में हम सबको एक ऐसी साझा जगह मिलती है, जहाँ हमारे विचारों, सिलसिलों, लिखे-पढ़े पाठों को गहराई से सुना जाता है। उन पर संजीदा व रोचक चर्चा की गुंजाइश भी हमेशा बनी रहती है। एक-दूसरों को सुनने से हमारी खुद की गुम और भूली हुई परछाइयां आकार लेने लगती हैं। एक साथ और एक दूसरे को सुनकर हमारी यादें, एक बड़ी बुनाई में जगह बना लेती हैं। एक साझा रूप धारण कर लेती है। और इसी साझे रूप के कारण हमें अपने आपको याद रखने में मदद मिलती है। सुनने की सामाजिक आबोहवा दिन पर दिन बदलती जा रही है। साथ-साथ सुनने के दायरे और रियाज़, (सिनेमा, सड़क, बाजार, बस) जगह की आपाधापी में निजी संतोष/उपभोग की अर्थव्यवस्था (इयरफ़ोन, मॉल, मेट्रो) से पिछड़ते जा रहे हैं। नये और बदलते शहरी दायरों के इर्द-गिर्द वैश्विक आधुनिकता ने जो नया ताना-बाना रचा है, उसमें शहरी व्यक्तित्व भी एक नई शक्ल-सूरत अख़्तियार करता जा रहा है। इन्हीं हालातों में हम साथ-साथ सुनने के नए मौक़े पैदा करना चाहते हैं।