रियाज़

साथ-साथ सुनना हमारे सारे रियाज़ों की बुनियाद है।  हम शहर को सुनते हैं, लोगों को सुनते हैं, जगहों को सुनते हैं, और तो और एक-दूसरे को भी उतने ही ग़ौर से सुनते हैं। दिल्ली लिसनिंग ग्रुप की महफ़िलों में हम सबको एक ऐसी साझा जगह मिलती है, जहाँ हमारे विचारों, सिलसिलों, लिखे-पढ़े पाठों को गहराई से सुना जाता है। उन पर संजीदा व रोचक चर्चा की गुंजाइश भी हमेशा बनी रहती है। एक-दूसरों को सुनने से हमारी खुद की गुम और भूली हुई परछाइयां आकार लेने लगती हैं। एक साथ और एक दूसरे को सुनकर हमारी यादें, एक बड़ी बुनाई में जगह बना लेती हैं। एक साझा रूप धारण कर लेती है। और इसी साझे रूप के कारण हमें अपने आपको याद रखने में मदद मिलती है। सुनने की सामाजिक आबोहवा दिन पर दिन बदलती जा रही है। साथ-साथ सुनने के दायरे और रियाज़, (सिनेमा, सड़क, बाजार, बस) जगह की आपाधापी में निजी संतोष/उपभोग की अर्थव्यवस्था (इयरफ़ोन, मॉल, मेट्रो) से पिछड़ते जा रहे हैं। नये और बदलते शहरी दायरों के इर्द-गिर्द वैश्विक आधुनिकता ने जो नया ताना-बाना रचा है, उसमें शहरी व्यक्तित्व भी एक नई शक्ल-सूरत अख़्तियार करता जा रहा है। इन्हीं हालातों में हम साथ-साथ सुनने के नए मौक़े पैदा करना चाहते हैं।

सुनने और आवाज के ‘बारे में’ महज लिखने की बजाय ये सवाल लगातार हमारी दिलचस्पी का सबब रहा है कि सुनने का रियाज करते हुए कैसे लिखा जाता है। हमारी समझ में सुनने की शारीरिक क्रिया और अपना ध्यान व्यवस्थित करना आवाजों को विन्यस्त करने के सिलसिले का पहला मुकाम होता है। लिहाजा, हम शहर के अलग-अलग भागों में एक खास वक्फे और खास संदर्भ में लिखने का प्रयोग और अभ्यास करते हैं।
हर कोई अलग ढंग से सुनता है। सुनने को लिखना आवाजों को रिकाॅर्ड करने का एक ऐसा तरीका है जिसमें हमें अलग-अलग सुनने वालों के खास अनुभवों को उभारने का मौका मिलता है जो कि हमेशा एक चुनिंदा ढंग से और स्थान विशेष के हिसाब से चलने वाली अर्थ ग्रहण प्रक्रिया होती है।
लिखने के जरिए हमने जिन व्यवहारों को समझने-बूझने की कोशिश की है उनमें ये शामिल हैंः
कैसे ध्वनियां हमारे रोज़मर्रा वक़्त को एक सांचे में ढालती हैं
अलग-अलग तरह की मज़दूरी से जुड़ी खास आवाज़ों के सुनने और निकालने के हुनर।
घरेलू दायरों के भीतर और आसपास की आवाज़ों के रिश्ते
साथ-साथ सुनने के अनुभवों की अभिव्यक्ति
सार्वजनिक यातायात और बाज़ार की आवाज़ें
सुनने के व्यवहारिक प्रयोगों के लिखित ब्यौरे - रोज़मर्रा की सुनने की तस्वीरें/ ग्राफ/ सुनने के ढांचें/ ठिकाने/नेटवर्क/पढ़ने और सीखने की आवाज़ें

हम आवाज़ों को सुनने और शहर के बारे में साझा सुनने और खुले संवाद के लिए मौजूदा ढाँचा और विविध मीडिया फार्म का सहारा लेते हैं। सार्वजनिक ढांचों और प्रयासों के बारे में हमारा तरीका किसी खास जगह के मौजूदा नेटवर्क, लय-ताल और सामाजिक ताने-बाने की विस्तृत समझ पर आधारित है। हम मौजूदा ढांचों और रूपों का किफ़ायती डीएलवाई ऑडियो तकनीक और लगातार स्थानीय उपस्थिति के जरिये अपने इस्तेमाल में लाने की कोशिश करते हैं।

अंकुर के ज़रिये दिल्ली लिसनिंग ग्रुप के कई साथी लर्निंग कलेक्टिव्ज़, क्लबों और स्कूल समूहों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं ताकि समूह और स्व-शिक्षा के संदर्भ रचने के लिए अंकुर के सुनने पर आधारित रियाज़ को आगे बढ़ा सकें। स्कूली सीख-सिखाव को रोजमर्रा के अनुभवों से जोड़ने के लिए हम व्यक्तिगत और संवादिक सुनायी व्यवहारों को आगे बढ़ाने के एक व्यापक कार्यक्रम के अनुसार काम कर रहे हैं। हमारे कुछ सवाल ये हैं कक्षा के अनुभव में आवाजों के क्या आयाम होते हैं? पढ़ाने में मौखिक आवाजों की क्या भूमिका होती है? वो क्या चीज़ है जो एक खाली कमरे को एक-दूसरे को सुनने के लिए इकट्ठा होने के ठिकाने में तब्दील कर देती है? सुनने का हुनर किस तरह आजीवन खुद सीखने के प्रयासों में योगदान दे सकता है?