शहर और आवाज
शहर की आवाजों पर होने वाली चर्चाएं बार-बार हमें शोर के सवाल पर ले आती हैं। ऐसे मौकों पर हमंे ये बूझने का कम ही मौका मिल पाता है कि शोर किसे कहते हैं, और कि ये बात हमारे निजी तजुर्बों और अपने इर्द-गिर्द के साथ हमारे संबंधों के साथ गहरे तौर पर जुड़ी होती है। शोर की तकनीकी परिभाषाओं के परे जाएं तो डेसिबल्स के पैमाने पर शोर शायद एक ऐसी चीज है जो हमारे कानों के दरवाजे तक तो जाती है लेकिन जिसे हम सुनने को तैयार नहीं होते यानी उसे दरवाजे से ही वापस लौटाने की कोशिश करते हैं और वो लौटने से इनकार करती है। यानी, ये एक अनचाही आवाज होती है।
सुनना तरह-तरह की आवाजों को व्यवस्थित करने और क्रम में रखने का एक तरीका है। अर्थ बूझने की इस प्रक्रिया में हम जिन आवाजों को अपने भीतर दाखिल होने से रोक देते हैं, जो आवाजें सुनने की एक निश्चित व्यवस्था का उल्लंघन करती दिखाई देती हैं, शायद उन्हीं को हम शोर की संज्ञा देते हैं।
पिछले दिनों सिटी ऐण्ड साउंड के सहभागियों को ज्यादा तरह की आवाजों को सुनने के लिए और संभवतः एक लिसनिंग टूर (सुनने के सफर) की मार्फत शहर के बारे में एक नई समझ सामने रखने के लिए आमंत्रित किया गया था। सुनने का ये सफर खिड़की और आसपास के इलाकों में था। इस टूर के बाद शहर और आवाज से जुड़े सवालों पर एक खुली चर्चा हुई जिसमें सुनना, आवाज, शोर के नियंत्रण, सुनने वाले अंगों, सार्वजनिक क्षेत्र की आवाजों, मिल-जुल कर सुनने, ध्वनि कला और आवाजों से भरे माहौल आदि शीर्षकों पर चर्चा हुई। इस यात्रा के साथ-साथ हमने खोज के अहाते और स्टूडियो में अपने मौजूदा कामों को भी प्रदर्शित किया।