प्रोजेक्ट


ये सुनने के व्यवहारों के बारे में एक मजेदार मगर संजीदा सोच-विचार का तरीका है। इसके जरिये हम अपने काम को सामने लाते हैं ताकि औरों को भी हमारे साथ आने और ये समझने-बूझने का मौक़ा मिले कि रोज़मर्रा के अलग-अलग कामों में सुनने के अलग-अलग हुनर की कितनी अहमियत होती है।

‘रिक्शा’ और ‘शोर’ के बारे में एक प्रयोग रिक्शोर एक चलता-फिरता ढांचा है जो लोकेलटी आधारित सुनने-सुनाने को लेकर मौजूदा नेटवर्कों में जाने की कोशिश करता है। यह एक ऐसा घुमंतू ढांचा है जिसको किसी भी आम रिक्शे पर तैनात करके तो चलाया ही जा सकता है। इसके आलावा इसे कार या बस में रखकर भी ले जाया जा सकता है। ये एक साधारण प्लेबैक साधन का भी काम कर सकता है और फोन या यू.एस.बी. के जरिये महीन आवाज़ों और स्थानीय ध्वनियों का इसमें समावेश भी किया जा सकता है।

हंस या कारवां पत्रिकाओं में आपने हमारा हालिया इश्तेहार देखा होगा।... हर कोई आवाज़ों को अपने ढंग से सुनता है इसलिए हमने सुनने के हुनर को पकड़ने के लिए ये टेलंट सर्च शुरु किया। 

खोज, नई दिल्ली, फरवरी 2011: एक लिसनिंग टूर (सुनने के सफर) की मार्फत शहर के बारे में एक नई समझ सामने रखने के लिए आमंत्रित किया गया था। सुनने का ये सफर खिड़की और आसपास के इलाकों में था। इस टूर के बाद शहर और आवाज से जुड़े सवालों पर एक खुली चर्चा हुई जिसमें सुनना, आवाज, शोर के नियंत्रण, सुनने वाले अंगों, सार्वजनिक क्षेत्र की आवाजों, मिल-जुल कर सुनने, ध्वनि कला और आवाजों से भरे माहौल आदि शीर्षकों पर चर्चा हुई।